चोटी की पकड़–11

शूद्र कही जाने वाली अन्य दलित जातियों का आध्यात्मिक उन्नयन, वैष्णव-धर्म के द्वारा जैसा, श्रीरामकृष्ण और विवेकानंद के द्वारा हुआ था, 


पर उनकी सामाजिक स्थिति में कोई प्रतिष्ठा न हुई थी, न साहित्य में वे मर्यादित हो सके थे।

 ब्राह्मण समाज ने काफी उदारता दिखाई थी, आर्य-समाज का भी थोड़ा-बहुत प्रचार हुआ था, पर इनसे व्यापक फलोदय न हो पाया था।

 ब्राह्मण समाज क्रिश्चन होनेवाले बंगालियों के भारतीय-धर्म-रक्षण का एक साधन, एक सुधार होकर रहा। 

इसमें सम्मिलित होनेवाले अधिकांश विलायत से लौटे उच्च-शिक्षित थे।

 मुख्य बात यह कि परिस्थितियों की अनुकूलता के बिना उचित राष्ट्रीय संगठन नहीं हो सकता, न हो सका। 

हिंसात्मक जो भावना स्वतंत्रता की कुंजी के रूप से प्रचारित हुई, वह संगठनात्मक राष्ट्रीय महत्त्व कम रखती थी। 

गांधीजी का असहयोग इसी की प्रतिक्रिया है, पर इसकी एकता की अड़ और गहरे पहुँची थी।

अस्तु, इस समय गुप्त सभाओं का जैसा क्रम चला, वैसा और उतना सिराजउद्दौला के समय अंगरेज़ों की मदद के लिए भी नहीं चला। 

कुछ ही दिनों में राजों, रईसों और वकील-बैरिस्टरों से मिलने पर, राजा राजेंद्र प्रताप की समझ में आ गया कि देश को साथ देना चाहिए।

 चिरस्थायी स्वत्व की रक्षा ही देश की रक्षा है, इस पर उन्हें ज़रा भी संदेह नहीं रहा।

 बहुत जगह दावतें हुईं, बहुत बार प्रतिज्ञाएँ की गईं।

 वकील और बैरिस्टरों के समझाने से दूसरे-दूसरे ज़मींदारों की तरह राजा राजेंद्रप्रताप भी समझे, उन्हें कोई खतरा नहीं। 

जिस मदद के लिए वह बात दे चुके हैं, पुलिस को उसकी खबर नहीं हो सकती, पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकती।

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